महर्षि पतंजलि, जिन्हें योग का पिता कहा जाता है, संभवतः 2 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 4 वीं शताब्दी CE तक भारत में रहे एक महान आचार्य, दार्शनिक एवं संस्कृत व्याकरणज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने योगसूत्र की रचना कर योग को एक संगठित प्रणाली में ढाला और अष्टांग योग की विधियों को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि शामिल हैं । इसके अतिरिक्त, उन्हें पाणिनि के अष्टाध्यायी पर लिखे महाभाष्य और आयुर्वेदिक ग्रंथों के लिए भी श्रेय दिया जाता है, हालांकि आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि ये कृतियाँ संभवतः अलग‑अलग पतंजलियों द्वारा लिखी गईं।
- उनका जन्म स्थान उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के कोंडर (कोडर) गांव के रूप में स्थानीय रूप से मान्यता प्राप्त है
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शिक्षा और गुरु: पतंजलि को पाणिनि के शिष्य माना जाता है और उन्होंने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर महाभाष्य नामक टीका लिखी।
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अवतार मान्यता: उन्हें शेषनाग का अवतार माना जाता है। एक कथा के अनुसार, गोनिका नामक योगिनी की प्रार्थना पर वे उनके हाथों में प्रकट हुए।
अष्टांग योग के आठ अंग
1. यम (Yama) – नैतिक संयम
पहला अंग सामाजिक और नैतिक आदर्शों का है। इसमें पाँच महान व्रत आते हैं: अहिंसा (हिंसा का परित्याग), सत्य (सत्यवचन), अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (इंद्रिय संयम), अपरिग्रह (लालच की अभावता) । ये नियम समाज में शांति और सामंजस्य लाते हैं।
2. नियम (Niyama) – व्यक्तिगत अनुशासन
दूसरा अंग आत्म-शुद्धि के पाँच नियमों पर आधारित है: शौच (बाह्य–आंतरिक शुद्धता), संतोष (वर्तमान में तृप्ति), तप (आत्मिक तपस्या), स्वाध्याय (स्व-अध्ययन व शास्त्र-चिंतन), ईश्वरप्रणिधान (ईश्वर में पूर्ण समर्पण)। ये साधक को आत्म-नियंत्रण और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर ले जाते हैं।
3. आसन (Asana) – शारीरिक स्थिरता
तीसरा अंग आसन है – वह मुद्रा जिसमें शरीर लंबे समय तक स्थिर और आरामदायक रहे। पतंजलि ने इसे इस रूप में परिभाषित किया कि ‘स्थिर सुखमासनम्’ हो, ताकि शरीर से मन-मस्तिष्क की शांति में मदद मिल सके।
4. प्राणायाम (Pranayama) – श्वास नियंत्रण
चौथा अंग श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करना है। यह अभ्यास आसन के बाद होता है, जिससे श्वास की गति को स्थिर और लयबद्ध किया जाता है, जिससे चित्त और प्राण के माध्यम से मन की शांति आती है।
5. प्रत्याहार (Pratyahara) – इन्द्रियों का प्रत्याहार
पाँचवा अंग इन्द्रियों को बाहरी वासना से वश में लाना है। इसमें इन्द्रियेंद्रियों का आंतरिक ओर मोड़कर मन को शांत करना शामिल है, जिससे चित्त को बाहरी बाधाओं से मुक्ति मिलती है।
6. धारणा (Dharana) – एकाग्रता
छठा अंग चित्त को किसी एक बिंदु पर स्थिर करना है, जैसे हृदय-स्थल, नासिका के आगे, या किसी देव मूर्ति पर। यह मन की केन्द्रित धारणा स्थिति है।
7. ध्यान (Dhyana) – निरंतर ध्यान
सातवाँ अंग है निरंतर ध्यान की अवस्था, जहां मन एक ही विषय पर अविचलित रहता है, बिना किसी विरोधी वृत्ति के।
8. समाधि (Samadhi) – पारमात्मिक एकत्व
आठवाँ और अंतिम अंग है समाधि — जब ध्यान इतना नि:स्वरूप हो जाता है कि साधक, क्रिया और विषय एकाकार हो जाते हैं, और मन की सभी वृत्तियां शांत हो जाती हैं, जिससे चेतना का परम स्वरूप उद्घाटित होता है।
इन आठ अंगों के माध्यम से योग साधक आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर होता है।
पाणिनि प्राचीन भारत के एक महान व्याकरणाचार्य थे, जिनका योगदान संस्कृत भाषा के व्याकरण को सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। उनका जन्म लगभग 4वीं से 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच हुआ माना जाता है, और वे वर्तमान पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र (गांधार) से संबंधित थे।
पाणिनि की प्रमुख रचना
पाणिनि की सबसे प्रसिद्ध रचना ‘अष्टाध्यायी’ है, जो संस्कृत व्याकरण का एक अत्यंत संगठित और सूत्रबद्ध ग्रंथ है। इस ग्रंथ में लगभग 4,000 सूत्रों के माध्यम से उन्होंने संस्कृत भाषा की संरचना, शब्द निर्माण, धातु रूपांतरण और व्याकरणिक नियमों को स्पष्ट किया है। ‘अष्टाध्यायी’ को आज भी भाषा विज्ञान और कंप्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
पाणिनि और पतंजलि का संबंध
पाणिनि और पतंजलि दोनों ही संस्कृत भाषा और व्याकरण के क्षेत्र में महान विद्वान थे, लेकिन वे अलग-अलग कालखंडों में हुए थे। पतंजलि ने पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ पर एक महत्वपूर्ण भाष्य लिखा, जिसे ‘महाभाष्य’ कहा जाता है। यह भाष्य पाणिनि के सूत्रों की व्याख्या करता है और उनमें गहराई से विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार, पतंजलि ने पाणिनि के कार्य को आगे बढ़ाया और उसे और अधिक स्पष्टता प्रदान की।
इस प्रकार, पाणिनि और पतंजलि का संबंध गुरु-शिष्य के रूप में नहीं, बल्कि विद्वान-भाष्यकार के रूप में था, जहाँ पतंजलि ने पाणिनि के कार्यों की व्याख्या और विश्लेषण किया।
योग की उत्पत्ति
योग की उत्पत्ति प्राचीन भारत में हुई और यह लगभग 5000 वर्षों से लगातार विकसित हो रहा है। इसकी शुरुआती झलकें सिंधु–सरस्वती सभ्यता (लगभग 3300–2600 ईसापूर्व) के संस्थानों से प्राप्त शिलालेखों और मुहरों पर योगाभ्यास करती आकृतियों में मिलती हैं, जैसे मोहनजोदड़ो की “पशुपति” मुहर पर मुद्रा में बैठे योगी का चित्र । इसके बाद वेदों में भी ‘योग’ शब्द का उल्लेख मिलता है—विशेषकर ऋग्वेद (लगभग 1500–900 ईसा पूर्व) और अथर्ववेद में श्वास नियंत्रण और तप जैसी प्रथाएँ उल्लेखित हैं ।
ऋग्वेद के सूक्त 5.81.1 में “योग” शब्द की मूल धातु “युज्” का पहला उल्लेख मिलता है, जो उदय होते सूर्य देवता सविता को समर्पित है। यहाँ “युज्” का अर्थ “जोड़ना” या “नियंत्रण” करना है।
इस मंत्र में ऋषि कहते हैं कि ज्ञानीजन अपने मन और बुद्धि को सविता देवता की ओर एकाग्र करते हैं। यह “योग” की अवधारणा का प्रारंभिक उदाहरण है, जहाँ आत्मा और ब्रह्म के बीच के जुड़ाव को दर्शाया गया है।
शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ:
संस्कृत में ‘योग’ शब्द धातु “युज्” से आया है, जिसका मूल अर्थ है “जोड़ना, संयमित करना, मिलन”। पतंजलि की योगसूत्र के अनुसार, योग का मूल समीकरण है:
योगः चित्त-वृत्ति निरोधः
इसका तात्पर्य है—“मन में उठने वाली सभी प्रवृत्तियों का नियंत्रण और शांत अवस्था प्राप्त करना”।
पाणिनि ने इसे दो आधारों पर व्युत्पन्न किया—‘युजिर् योगे’ अर्थात् संयोजन और ‘युज् समाधौ’ अर्थात् ध्यान की स्थिति। पतंजलि ने अपनी योगसूत्र में इसे “चित्त-वृत्तिनिरोध” (मन की उड़ती-फिरती प्रवृत्तियों का निरोध करना) के रूप में परिभाषित किया, और आचार्य व्यास ने इसे समाधि का नाम दिया।
बौद्ध और जैन साधनाओं में भी ध्यान एवं नैतिक नियंत्रण की प्राचीन विधियाँ देखी जाती हैं (लगभग 900–500 ईसा पूर्व) । उपनिषदों (तीसरी‑पहली शताब्दी ईसा पूर्व) विशेष रूप से ध्यान, प्राणायाम और आत्म–अंतर्मुखी खोज को परिभाषित करते हैं ।
भगवद्गीता में योग के विविध स्वरूप:
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में अलग-अलग योगों का उपदेश दिया:
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कर्मयोग: निष्काम कर्म, कर्तव्य का पालन बिना फल की आस से जुड़ा है।
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ज्ञानयोग: आत्म–ज्ञान की ओर ले जाने वाली सतर्कता एवं विवेकपूर्ण मार्ग है।
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भक्तियोग: प्रेम, समर्पण और ईश्वर–निर्भरता पर आधारित पूर्ण भावना योग है।
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गीता के अध्यायों में अर्जुन को विषाद‑योग से उबारने, सांख्य‑योग (तत्त्वज्ञान), कर्म‑वैराग्य योग, ध्यान योग और विज्ञान योग जैसे पथों के माध्यम से मोक्ष का मार्ग दिखाया गया है।
क्लासिकल काल (लगभग 500–200 ईसा पूर्व) में महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र रचकर अष्टांग योग की प्रथाओं (यम‑नियम‑आसन‑प्राणायाम‑प्रत्याहार‑धारणा‑ध्यान‑समाधि) को सुव्यवस्थित किया और उन्हें दर्शनशास्त्रीय आधार प्रदान किया। इसके बाद मध्ययुग में हठयोग का विकास हुआ, जिसमें आसनों और शारीरिक अभ्यासों पर विशेष ध्यान दिया गया ।
तो योग का “आविष्कार” किसी एक स्थान या समय पर नहीं हुआ, बल्कि यह भारत में वैदिक, उपनिषदिक, बौद्ध–जैन और पतंजलि जैसी परंपराओं के तारतम्य से धीरे‑धीरे आकार लेता गया। यदि संक्षेप में कहा जाए, तो इसकी जड़ें सिंधु–सरस्वती सभ्यता से प्रारंभ होकर सांस्कृतिक, दार्शनिक और शारीरिक अभ्यासों के साथ विकसित होते हुए हमें आज एक सम्पूर्ण जीवन दृष्टिकोण के रूप में प्राप्त हुई हैं।
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उपनिषदों में मंत्र‑योग, लय‑योग, हठ‑योग और राज‑योग जैसे विभिन्न पथों का वर्णन मिलता है ।
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हठयोग प्रदीपिका और घेरण्ड संहिता जैसे ग्रंथों में आसन, प्राणायाम, मुद्रा, द्वार बन्ध और ध्यान की क्रियाओं का विवरण मिलता है।
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भौतिक दृष्टिकोण से, योग का उद्गम सिंधु‑सरस्वती (3300–1700 ईसा पूर्व) सभ्यता से हुआ, जहाँ मोहनजोदड़ो की नाग‑नदी से संबंधित मुर्तियाँ बनीं। अक्सर खोजा गया है कि मोहनजोदड़ो मुहरों पर योगिक मुद्राएँ तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. की हैं।
योग का दार्शनिक सार:
योग, केवल एक व्यायाम नहीं, बल्कि एक ज्ञान–प्रणाली, आध्यात्मिक मार्ग और तंद्रा–मुक्ति प्रक्रिया है:
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चित्त-वृत्तिनिरोध = मानसिक अशांति से मुक्ति = मन की निर्विकार अवस्था।
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संयम = इंद्रियों, कार्यों और भावनाओं का संतुलित नियंत्रण।
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एकात्मता = आत्मा, शरीर और परमात्मा के बीच का मिलन = समाधि।
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जीव – परमात्मा का मिलाप = भक्तियोग और ज्ञानयोग द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक एकता।
ताज़ा गतिविधियाँ और सम्मान:
• योग दिवस 2025 (21 जून) पर उनके योगदान को स्मरण करते हुए कोडर गांव में विशेष आयोजन हुए जिससे पुरातात्विक महत्व और पर्यटन पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा ।
• गोंडा–अयोध्या हाईवे पर स्थित वजीरगंज के पास उनके जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है, जिसमें एक 2‑टन व 6½‑फुट लंबा लाल ग्रेनाइट का पतंजलि मूर्ति लाकर स्थापित किया गया है और साथ ही दो‑लेन सड़क का निर्माण भी चल रहा है जिससे अंतरराष्ट्रीय पर्यटक पहुंच सकेंगे।
प्रमुख कृतियाँ
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योगसूत्र: पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र योग दर्शन का मूल ग्रंथ है, जिसमें 195 सूत्रों के माध्यम से योग के सिद्धांतों को व्यवस्थित किया गया है।
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महाभाष्य: यह पाणिनि के अष्टाध्यायी पर लिखी गई एक विस्तृत टीका है, जो संस्कृत व्याकरण का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
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आयुर्वेद ग्रंथ: पतंजलि ने आयुर्वेद पर भी ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें उन्होंने रसायन विद्या, धातुयोग और लौहशास्त्र पर विशेष ध्यान दिया है।
संक्षेप में, महर्षि पतंजलि का जीवन और योगदान न केवल प्राचीन योग और संस्कृत भाषा के समृद्ध इतिहास का आधार हैं, बल्कि आधुनिक समय में उनका प्रभाव संरचनात्मक विकास, स्वास्थ्य विज्ञान और वैश्विक योग जागरूकता में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।