काशी की गंगा घाटों पर लाखों दीपों की लौ में परमात्मा की कृपा‑वर्षा: एक ऐसी दिव्यता जहाँ देव दीपावली शुभचिंतकों को प्रकाश, शांतिऔर पावनता का संदेश देती है।

देव दीपावली

देव दीपावली, हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण त्योहार है जो वाराणसी (काशी) में विशेष रूप से धूम-धाम से मनाया जाता है। यह पर्व कार्तिक माह की पूर्णिमा (कार्तिक पूर्णिमा) को आता है। इस दिन का अर्थ है “देवों की दिवाली” अर्थात् इस भव्य रात को मान्यता है कि देवता भी पवित्र गंगा के घाट-घाट पर उतारते हैं और दीपदान के माध्यम से अपने-अपने स्थानों का सम्मान करते हैं। इस दिन सुबह से ही श्रद्धालु घाटों पर पहुंचकर पूजा‑अनुष्ठानों में भाग लेते हैं; विशेष रूप से ‘कार्तिक स्नान’ के लिए गंगा में पवित्र डुबकी लगाई जाती है। शाम होते‑होते घाटों पर दीपदान की शुरुआत होती है; दीर्घ पंक्तियों में दीए जलते हैं, घाट किनारे‑किनारे दीपों की लहर बन जाती है जो नदी को एक विराट प्रकाश स्त्रोत बना देती है। देव दीपावली 5 नवंबर 2025 को मनाई जा रही है; यह कार्तिक पूर्णिमा का त्योहार है जब मान्यता के अनुसार देवता गंगा तटों पर पधारते हैं और गंगा को दीप अर्पित किए जाते हैं; वाराणसी के लगभग 84 घाटों पर शाम को लाखों मिट्टी के दीये जलाए जाते हैं, साथ ही भव्य गंगा आरती, पूजन और झांकियाँ निकलती हैं। इस वर्ष वाराणसी प्रशासन और पर्यटन विभाग ने “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” जैसे थीम के साथ कई घाटों को अलग-अलग राज्य-परंपराओं के अनुरूप सजाया है और लगभग दस लाख दीयों के अभिकल्प के साथ जगह-जगह सांस्कृतिक कार्यक्रम, लेजर व 3D-प्रोजेक्शन शो तथा पनबन्दी व आतिशबाज़ी कार्यक्रम भी आयोजित होंगे। भारी भीड़ को ध्यान में रखते हुए पुलिस और जिला प्रशासन ने सख्त सुरक्षा, ट्रैफिक डायवर्जन, रिवर-जोनों को सेक्टर में बाँटना, ग्रीन कॉरिडोर और मेडिकल इमरजेंसी के इंतज़ाम जैसे कदम उठाए हैं ताकि श्रद्धालु और पर्यटक सुरक्षित रूप से भव्य दीप-प्रदर्शन देख सकें। वाराणसी में देव दीपावली का उत्सव अत्यंत भव्य और अद्भुत रूप में मनाया जाता है। यह पर्व कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है और इसे “देवों की दिवाली” कहा जाता है क्योंकि मान्यता है कि इस दिन देवता स्वर्ग से उतरकर गंगा तट पर स्नान करते हैं और दीपदान का आनंद लेते हैं। वाराणसी के गंगा घाट विशेष रूप से दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट, रामघाट और अस्सी घाट पर लाखों दीप जलाए जाते हैं, जिससे पूरा नगर दीपों की आभा से जगमगा उठता है। मुख्य घाट जैसे दशाश्वमेध घाट, राजेंद्र प्रसाद घाट तथा पंचगंगा घाट आदि पर विशेष गंगा आरती होती है, जिसमें मंत्र, घंटियाँ, तांबे‑के पात्र, शंख‑ध्वनि सब मिलकर एक मंत्रमुग्ध कर देने वाला दृश्य बनाते हैं। इस दिन सुबह से ही घाटों पर विशेष गंगा स्नान और पूजा-अर्चना का आयोजन होता है। भक्तगण गंगा में स्नान करके शरीर और आत्मा की शुद्धि करते हैं, उसके बाद दीप और पुष्प अर्पित करते हैं। शाम को घाटों पर विशेष गंगा आरती होती है, जिसमें भव्य मंत्रोच्चार, घंटा-घोष, शंखध्वनि और कीर्तन के साथ लाखों दीपों की रोशनी मिलकर एक दिव्य दृश्य उत्पन्न करती है। घाटों पर नाव-सवारी और दीपदान का विशेष आयोजन किया जाता है, जिसमें श्रद्धालु गंगा में दीप प्रवाहित करते हैं।

धार्मिक दृष्टि से यह पर्व अत्यंत महत्व रखता है। कहा जाता है कि इस दिन गंगा में स्नान करने और दीपदान करने से सभी पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह पर्व केवल धार्मिक उत्सव नहीं बल्कि वाराणसी की संस्कृति और आध्यात्मिक परंपराओं का अद्वितीय प्रदर्शन भी है। इस दिन पूरे नगर में एक दिव्य प्रकाश और भक्ति का माहौल बन जाता है, और यह अनुभव श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए जीवनभर स्मरणीय रह जाता है।

ऐतिहासिक और धार्मिक अर्थ में यह त्योहार त्रिपुरासुर वध और शिव-संबंधी परंपराओं से जुड़ा है; भक्त रात में गंगा स्नान, दीपदान और भजन-कीर्तन में भाग लेकर शांति, समृद्धि और आशीर्वाद की कामना करते हैं। देव दीपावली का पौराणिक एवं धार्मिक महत्व अत्यंत गहरा और प्रेरणादायक है। यह पर्व केवल दीप प्रज्वलन या गंगा आरती का उत्सव नहीं, बल्कि असुरों पर देवताओं की विजय और प्रकाश के माध्यम से धर्म की स्थापना का प्रतीक है।

त्रिपुरासुर की कथा हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों में वर्णित एक अत्यंत प्रसिद्ध और शिक्षाप्रद कथा है, जो देव दीपावली और त्रिपुरारी पूर्णिमा के पौराणिक आधार से जुड़ी हुई है। कथा के अनुसार, तारकासुर नामक राक्षस का वध भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने किया था। तारकासुर के तीन पुत्र; विद्युनमाली, तारकाक्ष और कमलाक्ष अत्यंत बलशाली और बुद्धिमान थे। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए कठोर तपस्या की और ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब उनसे वरदान माँगा, तो उन्होंने तीन अभेद्य नगरों (त्रिपुर) की मांग की; एक स्वर्ग में, एक आकाश में और एक पृथ्वी पर। ये तीनों नगर सोने, चांदी और लोहे से बने थे और एक-दूसरे से पृथक रहते थे। ब्रह्मा जी ने यह वरदान देते हुए कहा कि उनका वध केवल तब संभव होगा जब ये तीनों नगर एक सीध में आ जाएँगे, और उस समय एक ही बाण से कोई उनका नाश करेगा।

इस वरदान के कारण त्रिपुरासुर अत्यंत शक्तिशाली हो गए। उन्होंने देवताओं पर आक्रमण कर दिया और तीनों लोकों में अत्याचार फैलाया। देवता पराजित होकर भगवान शिव के शरण में पहुँचे और उनसे प्रार्थना की कि वे संसार को इन दैत्यों से मुक्ति दिलाएँ। तब भगवान शिव ने देवताओं के सहयोग से एक विशाल रथ बनाया; स्वयं पृथ्वी रथ बनी, सूर्य और चंद्रमा उसके पहिए बने, ब्रह्मा सारथी बने, और भगवान विष्णु बाण बने। जैसे ही वह शुभ क्षण आया जब तीनों नगर एक सीध में आए, भगवान शिव ने अपने दिव्य धनुष से एक ही बाण चलाया और तीनों नगरों का नाश कर दिया। इस प्रकार त्रिपुरासुर का संहार हुआ, और देवताओं ने प्रसन्न होकर भगवान शिव की स्तुति की। उस दिन कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि थी, जिसे “त्रिपुरारी पूर्णिमा” और “देव दीपावली” के नाम से मनाया जाने लगा।

यह कथा इस बात का प्रतीक है कि अहंकार और अधर्म का अंत सदैव धर्म और सत्य की विजय से होता है, और भगवान शिव का वह त्रिपुरारी रूप हमें यह सिखाता है कि जब संसार में अन्याय बढ़ जाता है, तब ईश्वर स्वयं धर्म की रक्षा के लिए अवतरित होते हैं। तब भगवान शिव ने देवताओं के अनुरोध पर अपने दिव्य रूप “त्रिपुरारी” में अवतार लिया और कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को त्रिपुरासुर का वध किया। इसी कारण इस दिन को “त्रिपुरारी पूर्णिमा” भी कहा जाता है। जब देवताओं ने इस विजय का उत्सव मनाया, तो उन्होंने गंगा तट पर दीप जलाकर भगवान शिव की आराधना की; उसी समय से इस पर्व को “देव दीपावली” कहा जाने लगा।

इस वर्ष देव दीपावाली का त्योहार कार्तिक मास की पूर्णिमा (कार्तिक पूर्णिमा) के दिन मनाया जा रहा है, अर्थात् 5 नवंबर 2025 को।

  • पूर्णिमा तिथि आरंभ: 4 नवंबर 2025 रात 10:36 PM

  • पूर्णिमा तिथि समाप्त: 5 नवंबर 2025 सुबह 6:48 AM

  • दीपदान और मुख्य अनुष्ठान के लिए शुभ मुहूर्त: 5:15 PM से 7:50 PM

धार्मिक मान्यता यह भी है कि इस दिन देवता स्वयं स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरकर गंगा में स्नान करने आते हैं, और उनके स्वागत में समस्त घाटों पर दीप प्रज्वलित किए जाते हैं। गंगा जी को “देवों की अधिष्ठात्री” माना गया है, अतः उनके तट पर दीपदान करने से अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है और यह मोक्षदायक कर्म माना जाता है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि जो व्यक्ति इस दिन गंगा में स्नान करता है, दीपदान करता है या भगवान शिव–विष्णु की पूजा करता है, उसे जन्म-जन्मांतर के पापों से मुक्ति मिलती है।

वाराणसी में यह पर्व शिव और विष्णु दोनों के महात्म्य का संगम दर्शाता है; यहाँ भगवान शिव विश्वनाथ के रूप में विराजमान हैं और भगवान विष्णु हरि के रूप में पूजित होते हैं। जब गंगा तट पर लाखों दीप जलते हैं, तो यह दृश्य देवताओं की आभा का प्रतीक माना जाता है। देव दीपावली इस प्रकार केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं बल्कि आध्यात्मिक आलोक, भक्ति और ईश्वर के प्रति आभार का पर्व है; जो हमें यह संदेश देता है कि जब मनुष्य के भीतर भक्ति का दीप जलता है, तभी अंधकार रूपी अज्ञान का अंत होता है।

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