वैकुंठ चतुर्दशी हिन्दू धर्म में एक अत्यंत पवित्र एवं विशेष दिन है, जिसे कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों की पूजा साथ-साथ करने की परंपरा है, इसलिए इसे “हरि-हर मिलन” के नाम से भी जाना जाता है। वाराणसी में वैकुंठ चतुर्दशी का पर्व अत्यंत भव्यता और श्रद्धा के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव और भगवान विष्णु के मिलन का अद्भुत उत्सव देखने को मिलता है, जिसे “हरि-हर मिलन” कहा जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, इसी दिन स्वयं भगवान विष्णु काशी पधारे थे और उन्होंने भगवान शिव की आराधना कर उन्हें एक हजार कमल पुष्प अर्पित किए थे। भगवान विष्णु की भक्ति देखकर भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्हें “वैकुंठ” का वरदान प्रदान किया। इसी कारण इस दिन का नाम “वैकुंठ चतुर्दशी” पड़ा। यह कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि पर पड़ता है और सामान्यतः कार्तिक पूर्णिमा/देव दीपावली के ठीक पहले आता है। वैकुंठ चतुर्दशी 2025 में 4 नवंबर 2025 (मंगलवार) को मनाई जा रही है; चतुर्दशी तिथि 4 नवंबर की प्रातः 02:05 बजे से आरम्भ होकर उसी दिन रात 10:36 बजे तक रहती है, और विष्णु आराधकों के लिए विशेष निशीथ (मध्यरात्रि) मुहूर्त मध्यरात्रि के आसपास आता है, इसलिए विष्णु की आराधना निशीथ के समय (रात के 11 बजे के आसपास से आधी रात तक के कुशल समय के भीतर) और शिव की पूजा आरूणोदय (सुबह के प्रातःस्नान/दिवाली स्नान) के समय की जाती है। वैकुंठ चतुर्दशी का धार्मिक महत्व इसीलिए अनोखा है कि इस दिन काशी के विश्वनाथ मंदिर में विष्णु को विशेष स्थान दिया जाता है और मान्यता है कि यह स्थान वैकुंठ (स्वर्ग) के समान पवित्र हो जाता है; अनेक साधु-संत और तीर्थयात्री वाराणसी, गयातथा अन्य पवित्र स्थलों पर मनकर्णिका स्नान, तुलसी-और बेल पत्र अर्पण (विष्णु को बेल/शिव को तुलसी की अर्पणा) जैसी परंपराएँ निभाते हैं। दिन भर भजन–कीर्तन, विष्णु सहस्रनाम का पाठ, व्रत, दान, दीपदान और नदी में दीप छोड़ने की प्रथाएँ प्रचलित हैं; बहु-स्थल (विशेषकर शिव तथा विष्णु मंदिरों) पर विशेष आयोजन व सामूहिक पूजाएँ होती हैं। अगर आप परिवार या मंदिर में शामिल हो रहे हैं तो निशीथकाल पर विष्णु के लिए औपचारिक पूजा और सुबह-सवेरे शिव पूजा/स्नान पर विशेष ध्यान रखें; साथ ही व्रत, कथा-पठन और जरूरतमन्दों को दान करना इस दिन के पुण्य को बढ़ाने वाला माना जाता है। एक और अनोखी रीति है, विष्णु शिव को तुलसी अर्पित करते हैं, और शिव विष्णु को बिल्वपत्र (बेलपत्र) अर्पित करते हैं, जो सामान्यत: एक-दूसरे को नहीं दिया जाता। इस दिन यह पारस्परिक अर्पण धार्मिक रूप से विशेष महत्व रखता है।
विभिन्न क्षेत्रों में इस त्योहार का आयोजन भिन्न रूप में होता है। उदाहरण के लिए, उज्जैन में इसे खास रूप से धूमधाम से मनाया जाता है, भगवान की शोभायात्राएँ निकलती हैं और मंदिरों में विशेष सजावट होती है। महाराष्ट्र में भी मराठों द्वारा इस पर्व को बहुत महत्व दिया जाता है, कहा जाता है कि शिवाजी महाराज एवं उनकी माता जिजाबाई ने इस उत्सव की परंपरा को प्रोत्साहन दिया था।
वैकुंठ चतुर्दशी के दिन भक्त व्रत रखते हैं। दिनभर या रात भर उपवास कर ईश्वर की अनुकम्पा हेतु तन-मन को शुद्ध करते हैं। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में पवित्र नगरी या नदी घाट पर स्नान करना अत्यंत शुभ माना जाता है। उसके पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर पूजा स्थल की शुद्धि की जाती है, और वहाँ भगवान विष्णु व शिव की प्रतिमाएँ या चित्र स्थापित किए जाते हैं। भक्त इस पावन दिन विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते हैं, कीर्तन-भजन करते हैं तथा विष्णु और शिव मंत्रों का जाप बड़ी श्रद्धा से करते हैं। इस दिन की विशेष रीति यह है कि मध्यरात्रि (निशीथ काल) में भगवान विष्णु की पूजा की जाए और प्रातःकाल भगवान शिव की उपासना की जाए। एक और महत्त्वपूर्ण परंपरा है दीपदान घरों, जलाशयों अथवा नदियों में दीप जलाना, जो पितृ तर्पण का एक दिव्य मार्ग माना जाता है। पूजा-अर्चना में तुलसी (जो विष्णु को प्रिय है) व बेलपत्र (जो शिव को प्रिय है) का विशेष स्थान है। इस दिन विष्णु को बेलपत्र अर्पित करना और शिव को तुलसी देना अनोखा विधान है। अंत में आरती की जाती है, प्रसाद वितरित होता है और व्रत कथा का वाचन किया जाता है। दीपदान की विधि यह है कि शुद्ध जल से भरे पात्र में घी का दीपक जलाकर उसे तत्वों के साथ नदी या जलाशय में प्रवाहित कर देना चाहिए, और इस कार्य को करते समय पितरों को स्मरण करते हुए उन्हें समर्पित किया जाए।
पौराणिक कथा के अनुसार एक समय भगवान विष्णु ने काशी में जाकर भगवान शिव की पूजा करने का संकल्प लिया। उन्होंने मणिकर्णिका घाट पर स्नान किया और फिर हजार कमल के पुष्पों से शिवजी की पूजा करने का प्रयत्न किया। मगर जब पूजा आरंभ हुई, तो शिवजी ने उनकी भक्ति-परीक्षा के लिए एक कमल का पुष्प कम कर दिया। विष्णुजी ने देखा कि कमल का एक पुष्प कम है, तब उन्होंने विचार किया, “मेरी आँखें भी कमल की तरह लाल और सुन्दर हैं, मुझसे ही एक पुष्प लिया जा सकता है।” और उन्होंने अपनी एक आँख अर्पित कर दी। इस अगाध भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी प्रकट हुए और बोले कि, “आज की इस कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को ‘वैकुंठ चतुर्दशी’ कहा जाएगा; जो इस दिन व्रतपूर्वक और श्रद्धा से पूजा करेगा, उसे वैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी।” शिव जी इस भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्होंने वह आँख वापस दी तथा विष्णु को उनका सुदर्शन चक्र प्रदान किया। इस प्रकार यह दिन एक विशेष धार्मिक पर्व बन गया जिसमें शिव और विष्णु, हर और हरि दोनों की पूजा एक साथ होती है। निशीथ काल (पूजा का विशेष समय) लगभग रात 11:39 बजे से 12:31 बजे तक रहेगा, यानी करीब 52 मिनट का शुभ अवधि।
एक अन्य प्रसिद्ध कथा है कि एक समय की बात है, एक ब्राह्मण था जिसका नाम धनेश्वर था। उसने अपने संपूर्ण जीवन में अनेक पाप किए थे। परंतु जब वैकुंठ चतुर्दशी का पावन दिन आया, वह नदी के तट पर आया, जहाँ भक्त-जन दीप जलाकर, प्रार्थना करते हुए पापों से मुक्ति पाने का प्रयास कर रहे थे। धनेश्वर ने उन भक्तों के बीच ही स्नान किया और उनके संग मिलकर दीपदान के अनुष्ठानों में भाग लिया, यह सोचकर कि इस पवित्र समय और वातावरण की छाया में शायद उसका पाप धुल जाए। जब धनेश्वर का अंत हुआ, तो यमराज उसकी आत्मा को नरक (पाताल लोक) को ले जाने लगे, क्योंकि उसके द्वारा किए गए पापों का दंड होना था। तभी भगवान शिव ने हस्तक्षेप किया और यमराज से बोले कि, “हे यमराज! चतुर्दशी के दिन धर्मपूर्वक किए गए दीपदान और भक्तों द्वारा की गई पूजा से धनेश्वर के पाप कम हो गए हैं। उसे नरक में न ले जाया जाए, बल्कि उसे मुक्ति प्रदान की जाए।” यमराज ने शिव की आज्ञा का पालन किया, और धनेश्वर को नरक से मुक्त कर दिया गया। इस प्रकार कथा कहती है कि धनेश्वर ने उस पावन दिन की महिमा से लाभ पाते हुए वैकुंठ धाम की प्राप्ति की। इस घटना से यह संदेश मिलता है कि उस दिन की कृपा बहुत अधिक है, और सच्चे हृदय से की गई भक्ति, दीपदान और पूजा बहुत बड़े पापों को भी मिटा सकती है।
वाराणसी में वैकुंठ चतुर्दशी का पर्व अत्यंत भव्यता और श्रद्धा के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में मनाया जाता है। भगवान विष्णु का मणिकर्णिका स्नान एक अत्यंत पवित्र और दुर्लभ धार्मिक परंपरा है, जिसे मुख्यतः काशी (वाराणसी) में वैकुंठ चतुर्दशी के अवसर पर या अन्य विशेष पर्वों पर मनाया जाता है। इस स्नान का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व अत्यंत गहन है, क्योंकि यह केवल एक भौतिक स्नान नहीं बल्कि आध्यात्मिक शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति का माध्यम माना जाता है। मणिकर्णिका घाट, जो कि गंगा नदी के सबसे पवित्र घाटों में से एक है, श्मशान घाट के समीप स्थित है। यहाँ पर प्राचीन मान्यता है कि भगवान विष्णु स्वयं इस घाट पर स्नान करते हैं, और उनका स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वैकुंठ चतुर्दशी के दिन, मंदिर और घाटों पर विशेष आयोजन होते हैं। भक्तगण और साधु-संत गंगा में स्नान करते हैं और भगवान विष्णु के चरणों में पुष्प, अक्षत और जल अर्पित करते हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर में इस दिन एक विशेष परंपरा निभाई जाती है। मंदिर परिसर में भगवान विष्णु का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है, और भगवान शिव के साथ उनका मिलन कराया जाता है। कहा जाता है कि यह एकमात्र दिन होता है जब भगवान विश्वनाथ के गर्भगृह में भगवान विष्णु को प्रवेश की अनुमति दी जाती है। भगवान विष्णु का स्वर्णमय स्वरूप काशी विश्वनाथ मंदिर में लाया जाता है और भगवान शिव के सम्मुख आरती, पूजन तथा अभिषेक किया जाता है। रात के समय मंदिर में गंगा जल, पंचामृत, बेलपत्र, तुलसी दल और कमल पुष्प से शिव-विष्णु दोनों का संयुक्त पूजन किया जाता है। इस दिन काशी की गलियों में दीपों की श्रृंखला सजाई जाती है, और गंगा घाटों पर दीपदान का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है। भक्तगण इस दिन स्नान, ध्यान, उपवास और दान के माध्यम से पुण्य अर्जित करते हैं। वैकुंठ चतुर्दशी के अवसर पर काशी विश्वनाथ मंदिर का वातावरण अत्यंत दिव्य और अलौकिक बन जाता है। मंदिर में शिव और विष्णु की संयुक्त उपासना का यह अनोखा दृश्य भगवान हरि-हर की एकता और सौहार्द का प्रतीक माना जाता है।
वाराणसी में वैकुंठ चतुर्दशी का दिन केवल भगवान हरि-हर (विष्णु और शिव) के मिलन का पर्व ही नहीं, बल्कि काशी विश्वनाथ मंदिर प्रतिष्ठा दिवस के रूप में भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। धार्मिक परंपरा के अनुसार, इसी दिन भगवान विश्वनाथ के भव्य मंदिर की स्थापना एवं पुनः प्रतिष्ठा की गई थी। काशी विश्वनाथ मंदिर का यह दिवस इस कारण भी विशेष है क्योंकि यह काशी नगरी की आत्मा भगवान शिव की आराधना और भव्य पुनःस्थापना का स्मरण दिवस है। पुराणों और काशी खंड के अनुसार, वैकुंठ चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु स्वयं काशी आए थे और उन्होंने भगवान विश्वनाथ की आराधना की थी। उसी शुभ मुहूर्त में मंदिर में शिवलिंग की पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई, जिसे देवताओं और ऋषियों ने भी साक्षी रूप में देखा। तब से यह दिन काशी विश्वनाथ प्रतिष्ठा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
हर वर्ष इस दिन वाराणसी के काशी विश्वनाथ धाम परिसर में विशेष पूजा-अर्चना, अभिषेक और आरती का आयोजन होता है। मंदिर को फूलों और दीपों से सजाया जाता है, और संध्या समय ‘हरि-हर मिलन’ का भव्य उत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर गंगा तटों पर हजारों दीप प्रवाहित किए जाते हैं, और श्रद्धालु मंदिर में जाकर भगवान शिव की आराधना के साथ-साथ मंदिर की पुनःस्थापना का स्मरण करते हैं। धार्मिक मान्यता यह भी है कि इस दिन काशी विश्वनाथ मंदिर में की गई पूजा का फल अनेक जन्मों के पुण्य के समान होता है, और जो भक्त इस दिन मंदिर के दर्शन करते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार, वैकुंठ चतुर्दशी के अवसर पर काशी विश्वनाथ प्रतिष्ठा दिवस आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से वाराणसी के लिए अत्यंत गौरवशाली पर्व माना जाता है।