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व्रत, वटवृक्ष और व्रता की निष्ठा: 2025 में 10 जून को विशेष पूजन

वट सावित्री व्रत 10 जून 2025: संपूर्ण जानकारी

वट सावित्री व्रत हिंदू धर्म में सुहागिन महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण व्रत है, जो पति की दीर्घायु, सुख और समृद्ध जीवन के लिए रखा जाता है। वर्ष 2025 में यह व्रत 10 जून, मंगलवार के दिन मनाया जाएगा। यह पर्व विशेष रूप से उत्तर भारत, महाराष्ट्र, गुजरात और बिहार में बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। व्रत का आधार पौराणिक कथा है जिसमें सावित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज से पुनः जीवन दिलाया था, इसलिए इस व्रत में सावित्री के साहस, तप और भक्ति को स्मरण किया जाता है।

व्रत का शुभ मुहूर्त (10 जून 2025 के लिए):

  • व्रत तिथि: मंगलवार, 10 जून 2025

  • पुण्यकाल (पूजा समय): सुबह 04:50 AM से दोपहर 01:25 PM तक

  • व्रत प्रारंभ (वट अमावस्या): 09 जून 2025 की रात 11:24 PM से

  • व्रत समाप्ति (अमावस्या तिथि): 10 जून 2025 की रात 09:45 PM तक

इस अवधि में व्रत, पूजन, कथा श्रवण व परिक्रमा करना अत्यंत शुभ माना जाता है।

इस दिन महिलाएं प्रातःकाल स्नान करके व्रत का संकल्प लेती हैं, निर्जला उपवास करती हैं और सुहाग सामग्री धारण करती हैं जैसे कि लाल साड़ी, सिंदूर, चूड़ी और बिछुए। वे वट (बरगद) वृक्ष की पूजा करती हैं, जिसे अक्षय जीवन और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। पूजा में दूध, जल, फल, फूल, भीगे चने, मिठाई, सूत का धागा (कच्चा धागा) और पवित्र कथा शामिल होती है। महिलाएं वट वृक्ष की परिक्रमा करके सूत के धागे से उसे लपेटती हैं और सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती हैं। शाम को व्रत समाप्त होने पर जल और भोजन ग्रहण किया जाता है।

धार्मिक मान्यता है कि वट सावित्री व्रत रखने से पति की उम्र लंबी होती है, दांपत्य जीवन सुखमय रहता है और स्त्री को पुण्य लाभ प्राप्त होता है। इस दिन सुहागनें अन्य महिलाओं को सिंदूर, बिंदी, चूड़ी, और मिठाई देकर सुहाग का आशीर्वाद भी लेती हैं। यह पर्व स्त्री की निष्ठा, शक्ति और श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है।

अधिकांश त्योहार अमांत और पूर्णिमांत पंचांगों में एक ही दिन पड़ते हैं। उत्तर भारत — विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पंजाब और हरियाणा — में पूर्णिमांत पंचांग का पालन किया जाता है। जबकि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के राज्यों में अमांत पंचांग प्रचलित है।

हालाँकि, वट सावित्री व्रत इस नियम से थोड़ा अलग है। पूर्णिमांत पंचांग के अनुसार, यह व्रत ज्येष्ठ अमावस्या के दिन रखा जाता है, जो शनि जयंती के दिन पड़ता है। वहीं, अमांत पंचांग में इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा को मनाया जाता है और इसे ‘वट पूर्णिमा व्रत’ भी कहा जाता है।

इस कारण उत्तर भारत की महिलाएँ वट सावित्री व्रत पहले रखती हैं, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत की महिलाएँ यह व्रत 15 दिन बाद करती हैं। दोनों ही रूपों में व्रत की कथा और उसका महत्व एक समान होता है।

यह रही वट सावित्री व्रत 2025 की विस्तृत जानकारी तीन भागों में – पूजा विधि, व्रत कथा और आवश्यक सामग्री सूची:

1. वट सावित्री व्रत की पूजा विधि :

  1. स्नान एवं संकल्प:
    सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र पहनें। भगवान विष्णु, ब्रह्मा, शिव और वट वृक्ष को ध्यान में रखकर व्रत का संकल्प लें।
  2. व्रत पूजा सामग्री तैयार करें:
    पूजा स्थान पर वट वृक्ष या उसकी शाखा को रखकर कलश स्थापित करें। वृक्ष की जड़ में जल अर्पित करें और पूजा के लिए थाली सजाएं।
  3. वट वृक्ष की पूजा करें:
    वट वृक्ष की जड़ में हल्दी, कुमकुम, अक्षत, फूल, चूड़ी, सिंदूर अर्पित करें। वृक्ष के चारों ओर कच्चा सूत लपेटें और 7, 11 या 21 बार परिक्रमा करें।
  4. व्रत कथा श्रवण करें:
    पूजा के बाद व्रत कथा सुनें या पढ़ें। यह सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है।
  5. पति के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लें:
    पति की दीर्घायु के लिए प्रार्थना करें। फिर ब्राह्मणों या अन्य व्रती महिलाओं को भोजन कराकर व्रत खोलें।

2.सावित्री-सत्यवान व्रत कथा (वट सावित्री व्रत की मूल कथा)

प्राचीन समय की बात है। राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने पुत्री की प्राप्ति के लिए कठोर तप किया। अंततः देवी सावित्री ने उन्हें दर्शन देकर एक तेजस्विनी कन्या का वरदान दिया। समय आने पर राजा को एक अत्यंत सुंदर, गुणी, और बुद्धिमान कन्या प्राप्त हुई, जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।

जब सावित्री युवती हुई, तो विवाह के लिए योग्य वर की खोज आरंभ हुई। एक दिन सावित्री वन में भ्रमण करते हुए सत्यवान नामक राजकुमार से मिली, जो एक वनवासी और धर्मात्मा राजा द्युमत्सेन का पुत्र था। द्युमत्सेन अंधे हो चुके थे और राज्य से वनवास में जीवन व्यतीत कर रहे थे। सावित्री ने सत्यवान को अपना जीवनसाथी चुन लिया।

जब नारद मुनि ने राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अत्यंत गुणी तो है, परंतु वह एक वर्ष के भीतर मर जाएगा, तो सभी चिंतित हो उठे। परंतु सावित्री ने निश्चय किया कि वह सत्यवान से ही विवाह करेगी और उसके भाग्य को बदलेगी

विवाह के पश्चात सावित्री अपने पति और सास-ससुर के साथ वन में रहने लगी। जब एक वर्ष पूर्ण हुआ, तो उसने व्रत रखने का निश्चय किया। अमावस्या के दिन, उसने निर्जला व्रत किया और वट वृक्ष के नीचे बैठकर तप करने लगी।

उसी दिन जब सत्यवान लकड़ी काटने के लिए वन गया, सावित्री भी उसके साथ गई। सत्यवान की तबीयत अचानक बिगड़ी और वह सावित्री की गोद में गिर पड़ा। उसी समय यमराज वहां आए और सत्यवान के प्राण लेकर चलने लगे। सावित्री यमराज के पीछे-पीछे चलने लगी।

यमराज ने उसे समझाया कि वह केवल पत्नी धर्म निभा रही है, परंतु सावित्री ने धर्म, भक्ति, सेवा और विवेक से यमराज को प्रभावित किया। यमराज ने उसे वर मांगने को कहा। सावित्री ने पहले अपने ससुर के नेत्रों और राज्य की वापसी, फिर 100 पुत्रों का वर मांगा। यमराज ने हाँ कर दिया।

तब सावित्री ने कहा – “हे यमराज! यदि आपने मुझे सौ पुत्रों का वरदान दिया है, तो पहले मेरे पति को जीवन दीजिए, तभी यह संभव है।” यमराज अपनी बात से बंधे हुए थे, और सावित्री की दृढ़ निष्ठा से प्रसन्न होकर उन्होंने सत्यवान को पुनः जीवनदान दिया।

इस प्रकार सावित्री ने अपनी चतुराई, धर्मनिष्ठा और तप से अपने पति को मृत्यु से वापस पाया

3. घर पर पूजा की तैयारी :

व्रत की तैयारी के लिए आपको चाहिए:

  • एक छोटी चौकी या पट्टा

  • वट वृक्ष की टहनी (यदि बाहर न जा सकें तो चित्र या मिट्टी में लगाया पौधा भी चलेगा)

  • पूजा थाली में रखें:

    • रोली, चावल, सिंदूर

    • फूल, मिठाई, फल

    • एक कलश (जल भरा हुआ)

    • कच्चा सूत (मौली)

    • भीगे हुए चने

    • एक छोटी सी दीपक और घी

  • व्रत कथा पुस्तिका (या प्रिंटआउट)

  • पानी व फलाहार (व्रत समाप्ति के लिए)

पूजा घर में पूर्व दिशा की ओर मुख करके पूजा करें और कथा श्रवण के बाद व्रत खोलें।

यह कथा दर्शाती है कि सत्य, प्रेम, नारी शक्ति और धर्म के समर्पण से मृत्यु जैसे अटल नियम को भी बदला जा सकता है। सावित्री आज भी भारतीय स्त्रियों के लिए आदर्श पत्नी की प्रतीक हैं।

रवि प्रदोष व्रत आज: भगवान शिव की कृपा पाने का स्वर्णिम अवसर, जानिए पूजा विधि और पौराणिक कथा

आज का रवि प्रदोष व्रत (8 जून 2025, रविवार) अत्यंत पावन और शुभ माना गया है। यह व्रत ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को पड़ रहा है, जो आज सुबह 7:17 बजे से शुरू होकर अगले दिन 9 जून को सुबह 9:35 बजे तक रहेगी। चूंकि यह तिथि रविवार को पड़ी है, इसलिए इसे विशेष रूप से “रवि प्रदोष व्रत” कहा जाता है। यह व्रत भगवान शिव को समर्पित होता है और इसे रखने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट होते हैं तथा जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है। इस दिन भक्तजन दिनभर उपवास रखते हैं और प्रदोष काल (संध्या समय) में शिवलिंग का जल, दूध, दही, घी, शहद और गंगाजल से अभिषेक करते हैं। साथ ही बेलपत्र, धतूरा, सफेद पुष्प आदि अर्पित करते हैं। शिव चालीसा, शिवाष्टक और आरती का पाठ किया जाता है और ॐ नमः शिवाय का जाप कम से कम 108 बार किया जाता है।

तिथि व शुभ मुहूर्त

विषय जानकारी
तिथि 8 जून 2025, प्रातः 07:17 से त्रयोदशी आरंभ
व्रत काल 8 जून सुबह से 9 जून सुबह तक
पदोष पूजन समय शाम 07:18–09:19 बजे
पूजा विधि स्नान, पंचामृत/जलाभिषेक, बेलपत्र, जाप, कथा, आरती, चालीसा
कथा सार ब्राह्मणी, पुत्र व अनाथ राजकुमार धर्मगुप्त की कथा — व्रत श्राद्ध से शिव कृपा
महात्म्य सभी पापों का नाश, सुख-समृद्धि, परिवार में सुख

प्रदोष काल वह विशेष समय होता है जो सूर्यास्त से लगभग 45 मिनट पहले शुरू होकर 45 मिनट बाद तक चलता है, यानी कुल लगभग 1.5 घंटे की अवधि होती है। इस समय भगवान शिव की पूजा का विशेष महत्व होता है।

  • चूंकि ये तिथि सूर्यवार (रविवार) को पड़ रही है, इसलिए इसे रवि प्रदोष कहा जाता है

  • प्रदोषकाल पूजन का शुभ समय शाम 07:18 से रात 09:19 बजे तक है

महत्व व पुण्य

  • प्रदोष व्रत शिव उपासना का एक उच्चतम व्रत माना गया है, जो पापों से मुक्ति और मनोकामनाओं की पूर्ति में सहायक है

  • इस दिन उपवास और कथा सुनने से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है

पूजा विधि संक्षेप में

  1. सुबह शुद्ध स्नान करके हल्के रंग के साफ कपड़े पहनें

  2. शाम के समय (07:18–09:19 बजे) शिवलिंग की पूजा—

    • पंचामृत, जल से अभिषेक

    • बेलपत्र, धतूरा, आक, भस्म चढ़ाएं

    • धूप-दिवा जलाएं, रोटी खीर या सफेद चावल चढ़ाएं

  3. “ॐ नमः शिवाय” मंत्र का 108 बार जाप करें

  4. शि‍वाष्टक, शिव चालीसा और आरती पढ़ें

  5. घी का चौमुखी दीपक जलाएं—विशेषकर यदि परिवार में छोटे बच्चे हों—और जरूरतमंदों में वस्त्र, भोजन, दवा का दान करें

रवि प्रदोष व्रत कथा

आज का रवि प्रदोष व्रत (8 जून 2025, रविवार) अत्यंत पावन और शुभ माना गया है। यह व्रत ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को पड़ रहा है, जो आज सुबह 7:17 बजे से शुरू होकर अगले दिन 9 जून को सुबह 9:35 बजे तक रहेगी। चूंकि यह तिथि रविवार को पड़ी है, इसलिए इसे विशेष रूप से “रवि प्रदोष व्रत” कहा जाता है। यह व्रत भगवान शिव को समर्पित होता है और इसे रखने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट होते हैं तथा जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है। इस दिन भक्तजन दिनभर उपवास रखते हैं और प्रदोष काल (संध्या समय) में शिवलिंग का जल, दूध, दही, घी, शहद और गंगाजल से अभिषेक करते हैं। साथ ही बेलपत्र, धतूरा, सफेद पुष्प आदि अर्पित करते हैं। शिव चालीसा, शिवाष्टक और आरती का पाठ किया जाता है और ॐ नमः शिवाय का जाप कम से कम 108 बार किया जाता है।

प्रदोष व्रत की एक प्रमुख कथा भी है, जो इसके महत्व को दर्शाती है। कथा के अनुसार, एक बार एक निर्धन ब्राह्मणी अपने पुत्र के साथ गंगा स्नान के लिए जा रही थी। मार्ग में उसे एक घायल और अनाथ राजकुमार मिला, जिसका नाम धर्मगुप्त था। वह विदर्भ राज्य का युवराज था जिसे उसके शत्रुओं ने राज्य से निकाल दिया था। ब्राह्मणी उसे अपने साथ अपने घर ले आई और उसे अपने पुत्र की तरह पालन-पोषण करने लगी। वह हर त्रयोदशी को श्रद्धा और नियम से प्रदोष व्रत करती थी। एक दिन भगवान शिव उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर राजा को स्वप्न में दर्शन दिए और उसे धर्मगुप्त के बारे में बताया। राजा ने धर्मगुप्त को सम्मान सहित वापस बुलाया और उसे उसका राज्य लौटा दिया। बाद में धर्मगुप्त ने भी प्रदोष व्रत किया और एक शक्तिशाली, धर्मपरायण राजा बना।

इस कथा से यह संदेश मिलता है कि शिव भक्ति और प्रदोष व्रत से जीवन की सभी बाधाएं दूर होती हैं और मनुष्य को भाग्य, भक्ति और मोक्ष तीनों की प्राप्ति होती है। रवि प्रदोष व्रत विशेष रूप से स्वास्थ्य, संतान सुख, कर्ज मुक्ति और पारिवारिक कल्याण के लिए अत्यंत फलदायक माना गया है। अतः जो भी श्रद्धा, नियम और भक्ति से यह व्रत करता है, उसे भगवान शिव की असीम कृपा प्राप्त होती है।

व्रत का विशेष लाभ:

  • पापों से मुक्ति

  • आर्थिक समृद्धि

  • स्वास्थ्य लाभ

  • पारिवारिक सुख

  • अकाल मृत्यु से रक्षा

  • मोक्ष की प्राप्ति

आज के दिन जो भी श्रद्धालु नियमपूर्वक यह व्रत करते हैं, वे भगवान शिव की विशेष कृपा के पात्र बनते हैं। यह व्रत न केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि सांसारिक रूप से भी जीवन को सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

हर हर महादेव! 🕉️

निर्जल उपवास से मोक्ष का द्वार: पढ़िए निर्जला एकादशी व्रत करने की सम्पूर्ण विधि

निर्जला एकादशी हिंदू धर्म में एक अत्यंत पवित्र और पुण्यदायी व्रत है, जो ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है। इस व्रत का विशेष महत्व है क्योंकि यह बिना जल और अन्न के उपवास करने का संकल्प है, जिससे इसे ‘निर्जला’ कहा जाता है। यह व्रत सभी 24 एकादशियों के पुण्यफल के बराबर माना जाता है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो वर्ष भर की एकादशियों का पालन नहीं कर पाते हैं।

वर्ष 2025 में, निर्जला एकादशी का व्रत 6 जून को रखा जाएगा। एकादशी तिथि 6 जून को प्रातः 2:15 बजे से प्रारंभ होकर 7 जून को प्रातः 4:47 बजे तक रहेगी। इसलिए, उदया तिथि के अनुसार व्रत 6 जून को रखा जाएगा। हालांकि, वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी 7 जून को व्रत रखेंगे। पारण (व्रत तोड़ने) का समय 7 जून को दोपहर 1:44 बजे से 4:31 बजे तक है।

निर्जला एकादशी व्रत की विधि (पूजा विधि विस्तारपूर्वक):

निर्जला एकादशी का व्रत अत्यंत कठिन लेकिन अत्यंत फलदायक होता है। इस व्रत में जल और अन्न दोनों का त्याग किया जाता है, इसलिए इसे “निर्जला” कहा गया है। यह व्रत भगवान विष्णु को समर्पित होता है। नीचे व्रत की पूर्ण विधि विस्तार से दी गई है:

व्रत की पूर्व संध्या (दशमी तिथि की तैयारी):

  • सात्त्विक भोजन करें – बिना लहसुन-प्याज और तामसिक पदार्थों के।
  • रात्रि में ब्रह्मचर्य का पालन करें और भगवान विष्णु का स्मरण करते हुए सोएं।
  • मन में व्रत का संकल्प लें कि अगले दिन निर्जल रहकर उपवास करेंगे।

एकादशी तिथि की सुबह:

  • ब्राह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करें, स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
  • सूर्य देव को जल चढ़ाकर “ॐ सूर्याय नमः” का जाप करें।
  • घर के पूजा स्थान को गंगाजल से शुद्ध करें।

भगवान विष्णु की पूजा विधि:

  • विष्णु जी की मूर्ति या तस्वीर के सामने दीपक जलाएं।
  • पीला वस्त्र, पीले फूल, तुलसी दल, चंदन, धूप-दीप आदि अर्पित करें।
  • पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर) से अभिषेक कर सकते हैं।
  • भगवान को फल, मिठाई, और तुलसी पत्र अर्पित करें।

मंत्र जाप और स्तोत्र पाठ:

  • “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप करें।
  • विष्णु सहस्रनाम, श्री विष्णु अष्टोत्तर शतनाम, या श्रीमद्भागवत गीता के अध्यायों का पाठ करें।
  • ध्यान और भजन-कीर्तन करते रहें।

5. उपवास नियम:

  • पूरे दिन जल और अन्न से पूर्ण रूप से परहेज करें।
  • अधिकतर भक्त पूरे दिन बिना जल के रहते हैं, लेकिन जो अस्वस्थ हैं वे केवल फलाहार या तुलसी जल ले सकते हैं।
  • दिनभर भगवान विष्णु का स्मरण करें और सांसारिक कार्यों से दूर रहें।

द्वादशी तिथि पर पारण (व्रत समाप्ति):

  • अगले दिन द्वादशी को प्रातः स्नान करें।
  • पुनः विष्णु जी की पूजा करें और तुलसी जल अर्पित करें।
  • ब्राह्मण या गरीब व्यक्ति को जल से भरा हुआ घड़ा, फल, अन्न, वस्त्र, छाता, चप्पल आदि का दान करें।
  • उसके बाद व्रत का पारण करें – अर्थात फलाहार या भोजन करके व्रत समाप्त करें।

विशेष पूण्यकारी कार्य:

  • इस दिन दान विशेष फलदायक माना गया है। आप यह वस्तुएं दान कर सकते हैं:
    • जल भरा मिट्टी या तांबे का घड़ा
    • गंगा जल
    • चावल, गेहूं, मूंग
    • गाय को चारा
    • तुलसी का पौधा
    • छाता, वस्त्र, पंखा

निर्जला एकादशी का व्रत सभी एकादशियों के फल के समान माना जाता है। यह व्रत व्यक्ति के सारे पापों को हरता है, मन और आत्मा को शुद्ध करता है, और अंत में मोक्ष की प्राप्ति कराता है।

निर्जला एकादशी की व्रतकथा (विस्तारपूर्वक):

निर्जला एकादशी की व्रतकथा अत्यंत प्रसिद्ध और प्रेरणादायक है। इस कथा का उल्लेख पद्म पुराण में मिलता है। इस व्रत को भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है, क्योंकि इसका संबंध महाभारत के पांडवों में से एक – भीमसेन से है।

कथा की शुरुआत:

महाभारत काल में पांडव धर्म, पूजा और व्रत का पूरी श्रद्धा से पालन करते थे। धर्मराज युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव सभी हर महीने की एकादशी का व्रत रखते थे, परंतु भीमसेन को यह व्रत रखना कठिन लगता था।

भीम अत्यंत बलशाली थे और उन्हें अत्यधिक भूख लगती थी। वे भोजन और जल के बिना रह नहीं पाते थे। लेकिन वे भी यह सोचकर दुखी रहते थे कि व्रत न रखने से उन्हें धर्म और पुण्य की प्राप्ति नहीं हो पाएगी।

व्यास ऋषि से समाधान:

एक दिन भीमसेन ने ऋषि वेदव्यास से इस विषय में बात की और कहा –

“गुरुदेव! मेरे लिए महीने में दो बार एकादशी का व्रत रखना अत्यंत कठिन है। लेकिन मैं भी चाहता हूँ कि मुझे भी उतना ही पुण्य मिले जितना मेरे भाइयों को मिलता है। कृपया कोई उपाय बताइए।”

वेदव्यास जी ने उत्तर दिया –

“हे भीम! यदि तुम पूरे वर्ष की सभी एकादशियों का पुण्य एक साथ प्राप्त करना चाहते हो, तो ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे ‘निर्जला एकादशी’ कहते हैं, का व्रत करो। इस दिन यदि तुम पूरे दिन अन्न और जल का त्याग कर उपवास रखो, तो तुम्हें वर्ष भर की सभी एकादशियों का पुण्य मिलेगा।”

वेदव्यास जी की बात सुनकर भीमसेन ने व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने निर्जला उपवास का पालन किया। अत्यंत गर्मी में बिना जल के एक दिन उपवास करना उनके लिए बहुत कठिन था। परंतु उन्होंने अपने संकल्प को पूरा किया। अंततः भगवान विष्णु उनसे प्रसन्न हुए और उन्हें वर्ष भर की सभी एकादशियों का पुण्य प्रदान किया।

इस व्रत का फल इतना महान माना गया है कि निर्जला एकादशी को “महाएकादशी” भी कहा जाता है। यदि कोई व्यक्ति वर्ष की सभी एकादशियाँ नहीं रख सकता, तो केवल इस एक दिन का व्रत करके वह सभी का पुण्य प्राप्त कर सकता है।

इस कथा से यह संदेश मिलता है कि यदि मन में भक्ति सच्ची हो और संकल्प मजबूत हो, तो कठिन से कठिन व्रत भी संभव हो सकता है। साथ ही यह भी कि एक दिन का संयम और त्याग पूरे वर्ष की साधना के बराबर फलदायी हो सकता है।

निर्जला एकादशी केवल एक व्रत नहीं, बल्कि आत्मसंयम, श्रद्धा, और तपस्या का प्रतीक है। यह व्रत पापों के नाश, पुण्य की प्राप्ति और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।

यदि आप इस व्रत को श्रद्धा पूर्वक करते हैं, तो निश्चित ही भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख, समृद्धि और शांति का वास होता है।

इस दिन दान का विशेष महत्व है। जल से भरे घड़े, शरबत, मौसमी फल, सफेद वस्त्र, छाता, चप्पल आदि का दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाना और परिक्रमा करना भी शुभ माना जाता है। श्रीमद् भागवत कथा का पाठ करना और भगवान विष्णु के नाम का स्मरण करना भी पुण्यदायी होता है।

इस वर्ष निर्जला एकादशी पर हस्त नक्षत्र, रवियोग और सिद्ध योग का संयोग बन रहा है, जो व्रत के महत्व को और बढ़ाता है। यह व्रत आत्मशुद्धि, संयम और भक्ति का प्रतीक है, जो भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।

व्रत के दिन संयमित आचरण, सत्यवादिता, सेवा और दान का पालन करना चाहिए। इससे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और आध्यात्मिक उन्नति होती है। निर्जला एकादशी का व्रत रखने से न केवल वर्तमान जीवन में सुख-शांति मिलती है, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है।

इस पावन अवसर पर, आप भी निर्जला एकादशी का व्रत रखकर भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त कर सकते हैं और अपने जीवन को सुख-समृद्धि से भर सकते हैं।

 

गंगा दशहरा 2025: हरिद्वार और काशी के घाटों पर आस्था का महापर्व

 

गंगा दशहरा 2025 एक अत्यंत पवित्र और धार्मिक महत्व का पर्व है, जो 5 जून 2025, गुरुवार को मनाया जाएगा। यह पर्व ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है, जो इस वर्ष 4 जून की रात 11:54 बजे से प्रारंभ होकर 6 जून की सुबह 2:15 बजे तक रहेगा। इस दिन हस्त नक्षत्र और व्यतीपात योग जैसे शुभ संयोग भी बन रहे हैं, जो इस पर्व की आध्यात्मिक ऊर्जा को और अधिक प्रभावशाली बनाते हैं।

गंगा दशहरा का पर्व देवी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की स्मृति में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से दस प्रकार के पापों का नाश होता है, इसलिए इसे ‘गंगा दशहरा’ कहा जाता है। इस अवसर पर गंगा स्नान, दान, पितरों का तर्पण और विशेष पूजा विधियों का पालन करना अत्यंत पुण्यदायक माना जाता है।

 गंगा दशहरा 2025: तिथि और शुभ मुहूर्त

  • पर्व की तिथि: गुरुवार, 5 जून 2025

  • दशमी तिथि प्रारंभ: 4 जून 2025 को रात 11:54 बजे

  • दशमी तिथि समाप्त: 6 जून 2025 को सुबह 2:15 बजे

  • हस्त नक्षत्र: 5 जून को सुबह 3:35 बजे से 6 जून को सुबह 6:34 बजे तक

  • व्यतीपात योग: 5 जून को सुबह 9:14 बजे से 6 जून को सुबह 10:13 बजे तक

 पर्व का महत्व

गंगा दशहरा के दिन देवी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की स्मृति में गंगा नदी में स्नान करने से दस प्रकार के पापों का नाश होता है। इस दिन गंगा स्नान, दान, पितरों का तर्पण और विशेष पूजा विधियों का पालन करना अत्यंत पुण्यदायक माना जाता है। यह पर्व न केवल पापों से मुक्ति दिलाता है, बल्कि जीवन की विभिन्न बाधाओं और कष्टों को भी दूर करता है।

 पूजा विधि और नियम

  • स्नान: गंगा में स्नान से पूर्व क्षमा याचना करें और स्नान के दौरान पांच या सात बार डुबकी लगाएं।

  • दान: जल से भरे घड़े, शरबत, मौसमी फल और सफेद वस्त्रों का दान करें।

  • वर्जित वस्तुएं: मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन का सेवन न करें।

  • आचरण: मधुर वाणी में बात करें और किसी का अपमान न करें।

पूजा विधि में गंगा स्नान से पूर्व माता गंगा को प्रणाम करना, उनसे क्षमा याचना करना और स्नान के दौरान पांच या सात बार डुबकी लगाना शामिल है। महिलाओं को विशेष ध्यान देना चाहिए कि वे बाल खुले न रखें और गंगा में स्नान करते समय वस्त्र उतारना वर्जित है। स्नान के बाद वस्त्रों को वहीं निचोड़ने से भी परहेज करना चाहिए और उन्हें घर लाकर साफ जल से धोना श्रेयस्कर होता है।

प्रयागराज में गंगा दशहरा के अवसर पर ‘निवाड़ा नौका’ की परंपरागत शोभायात्रा निकाली जाती है। यह बांस से बनी विशेष नाव होती है, जिसे देवी समया माई मंदिर परिसर में तैयार किया जाता है। इस नौका को संगम में विसर्जित किया जाता है, जिससे रोगों से मुक्ति की कामना की जाती है।

गंगा दशहरा के दिन गंगा घाटों पर भक्तों की भीड़ उमड़ती है। हरिद्वार, वाराणसी और प्रयागराज जैसे तीर्थस्थलों पर गंगा आरती, दीपदान और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों की सुंदर झलकियाँ देखने को मिलती हैं। महिलाएं पारंपरिक परिधान पहनकर सोलह श्रृंगार करती हैं और मेहंदी रचाती हैं।

यदि आप प्रयागराज में हैं, तो संगम पर गंगा स्नान और आरती में भाग लेना अत्यंत शुभ माना जाता है। इस दिन किए गए धार्मिक उपायों से जीवन के बिगड़े कार्य बन सकते हैं और सुख-समृद्धि की प्राप्ति हो सकती है।

गंगा नदी के पृथ्वी पर अवतरण की पौराणिक कथा हिंदू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह कथा भगीरथ की तपस्या, शिव की कृपा और गंगा के दिव्य स्वरूप से जुड़ी हुई है।

गंगा अवतरण की पौराणिक कथा

1. सगर के पुत्रों का उद्धार

प्राचीन काल में अयोध्या के राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। इंद्र ने यज्ञ का अश्व चुरा लिया और उसे कपिल मुनि के आश्रम में छोड़ दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र अश्व की खोज में कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे और उन्हें अश्व के पास ध्यानमग्न देखकर अश्व की चोरी का आरोप लगाया। क्रोधित होकर कपिल मुनि ने उन्हें भस्म कर दिया।

2. भगीरथ की तपस्या

राजा सगर के वंशजों की आत्मा की मुक्ति के लिए उनके वंशज भगीरथ ने कठोर तपस्या की। उन्होंने ब्रह्मा जी से गंगा को पृथ्वी पर लाने का वरदान प्राप्त किया। ब्रह्मा जी ने गंगा को पृथ्वी पर भेजने का वचन दिया, लेकिन उसकी प्रचंड धारा से पृथ्वी के विनाश की आशंका थी।

3. शिव की जटाओं में गंगा का अवतरण

गंगा की प्रचंड धारा को नियंत्रित करने के लिए भगीरथ ने भगवान शिव की तपस्या की। शिव जी ने प्रसन्न होकर गंगा को अपनी जटाओं में समाहित किया और धीरे-धीरे उसे पृथ्वी पर प्रवाहित किया। इस प्रकार गंगा का अवतरण हुआ, जिससे सगर के पुत्रों की आत्मा को मुक्ति मिली।

  • जाह्नवी: जब गंगा ने ऋषि जह्नु के आश्रम को बहा दिया, तो उन्होंने गंगा को पी लिया। बाद में गंगा उनके कान से बाहर निकलीं, इसलिए उन्हें ‘जाह्नवी’ कहा जाता है।
  • भागीरथी: भगीरथ की तपस्या से गंगा का अवतरण हुआ, इसलिए उन्हें ‘भागीरथी’ भी कहा जाता है।
  • पापविनाशिनी: गंगा में स्नान करने से पापों का नाश होता है, इसलिए उन्हें ‘पापविनाशिनी’ कहा जाता है।

गंगा अवतरण की यह कथा हमें यह सिखाती है कि दृढ़ संकल्प, तपस्या और भक्ति से असंभव कार्य भी संभव हो सकते हैं। गंगा आज भी भारतीय संस्कृति में पवित्रता, मोक्ष और जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक हैं।

हरिद्वार और काशी के गंगा घाट की झलकियाँ

गंगा दशहरा के अवसर पर हरिद्वार और काशी (वाराणसी) के गंगा घाटों पर विशेष आयोजन होते हैं। हरिद्वार के हर की पौड़ी घाट और काशी के दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती का आयोजन होता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं।

हरिद्वार के प्रमुख गंगा घाट

1. हर की पौड़ी घाट

  • हरिद्वार का सबसे प्रसिद्ध घाट, जहाँ प्रतिदिन सायंकाल गंगा आरती का आयोजन होता है।

  • गंगा दशहरा के अवसर पर यहाँ हजारों श्रद्धालु एकत्रित होते हैं।

  • यह घाट धार्मिक अनुष्ठानों और स्नान के लिए प्रमुख स्थल है।

2. कुशावर्त घाट

  • यहाँ सप्त ऋषियों द्वारा गंगा का आह्वान करने की मान्यता है।

  • शांत वातावरण और आध्यात्मिकता का अनुभव करने के लिए उपयुक्त स्थान।

3. गौ घाट

  • यह घाट पितृ तर्पण और श्राद्ध कर्मों के लिए प्रसिद्ध है।

  • यहाँ का शांत वातावरण ध्यान और साधना के लिए उपयुक्त है।

हरिद्वार गंगा घाट:

  • हर की पौड़ी घाट पर गंगा आरती का दृश्य।

  • श्रद्धालु गंगा स्नान करते हुए।

  • हरिद्वार के घाटों की रात्रि छटा।

काशी (वाराणसी) के प्रमुख गंगा घाट

1. दशाश्वमेध घाट

  • वाराणसी का सबसे प्रमुख और प्राचीन घाट, जहाँ प्रतिदिन भव्य गंगा आरती होती है।

  • गंगा दशहरा पर यहाँ विशेष पूजा और अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं।

2. अस्सी घाट

  • यह घाट साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है।

  • यहाँ सुबह-सुबह योग और ध्यान सत्र आयोजित होते हैं।

3. मणिकर्णिका घाट

  • यह घाट हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार के लिए प्रमुख स्थल है।

  • यहाँ की अग्नि को अनंतकाल से जलता हुआ माना जाता है।

काशी (वाराणसी) गंगा घाट:

  • दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती का आयोजन।

  • अस्सी घाट पर पूजा-अर्चना करते श्रद्धालु।

  • गंगा नदी के किनारे स्थित प्राचीन मंदिरों की भव्यता


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